रबीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1940) उन साहित्य-सृजकों में हैं, जिन्हें काल की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। रचनाओं के परिमाण की दृष्टि से भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं। उन्होंने एक हज़ार से भी अधिक कविताएँ लिखीं और दो हज़ार से भी अधिक गीतों की रचना की। इनके अलावा उन्होंने बहुत सारी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा धर्म, शिक्षा, दर्शन, राजनीति और साहित्य जैसे विविध विषयों से संबंधित निबंध लिखे। उनकी दृष्टि उन सभी विषयों की ओर गई, जिनमें मनुष्य की अभिरुचि हो सकती है। कृतियों के गुण-गत मूल्यांकन की दृष्टि से वे उस ऊँचाई तक पहुँचे थे, जहाँ कुछेक महान् रचनाकर ही पहुँचते हैं। जब हम उनकी रचनाओं के विशाल क्षेत्र और महत्व का स्मरण करते हैं, तो इसमें तनिक आश्चर्य नहीं मालूम पड़ता कि उनके प्रशंसक उन्हें अब तक का सबसे बड़ा साहित्य-स्रष्टा मानते हैं।
महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित रबीन्द्रनाथ ठाकुर भारत के विशिष्ट नाट्यकारों की भी अग्रणी पंक्ति में हैं। परंपरागत और आधुनिक समाज की विसंगतियों एवं विडंबनाओं को चित्रित करते हुए उनके नाटक व्यक्ति और संसार के बीच उपस्थित अयाचित समस्याओं के साथ संवाद करते हैं। परम्परागत संस्कृत नाटक से जुड़े और बृहत्तर बंगाल के रंगमंच और रंगकर्म के साथ निरंतर गतिशील लोकनाटक (जात्रा आदि) तथा व्यवसायिक रंगमंच तीनों संबद्ध होते हुए भी रबीन्द्रनाथ उन्हें अतिक्रान्त कर अपनी जटिल नाट्य-संरचना को बहुआयामी, निरंतर विकासमान और अंतरंग अनुभव से पुष्ट कर प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि राजा ओ रानी (1889), विसर्जन (1890), डाकघर (1912), नटीरपूजा (1926), रक्तकरबी (लाल कनेर), अचसायत (1912), शापमोचन (1931) चिरकुमार सभा (1926) आदि उनकी विशिष्ट नाट्य-कृतियाँ ने केवल बंगाल में, बल्कि देश-विदेश के रंगमंचो पर अनगिनत बार मंचित हो चुकी हैं।