अपनी इच्छाओं को त्याग ना ग़लत है!
हिमालय की तलहटी और पहाड़िया |
लंबा सफर तय करके वह नौजवान बस से उतरा। उसके पास थीं कपड़ों की दो गठरियाँ। पहाड़ पर चढना था। बस अड्डे के पास खड़े खच्चरों में से एक को उसने किराये पर तय कर लिया।
"कहाँ चलना है साहब ?" खच्चर वाले ने पूछा।
"किसी जाने-माने साधु महाराज के आश्रम ले चलो।" " ठीक, कितने दिन ठहरने का इरादा है ?"खच्चर वाले ने पूछा।
"कितने दिन ? भैया रे, अब मेरी जिंदगी यहीं कटने वाली है। बीबी-बच्चे, माता- पिता, अच्छा-खासा कारोबार सब कुछ छोड़-छाड़कर आ गया हूँ, समझे? ये देखो, मैंने यह जो सोने का चेन पहन रखा है गले में, इसे भी उतारकार तुम्हें देने वाला हूँ, हाँ।" उसे नौजवान ने कहाँ |
खच्चरवाला अचरज से मुँह बाए खड़ा रह गया। "इतनी छोटी उम्र में यह वैराग्य!... कैसे संभव हुआ आपसे ?"
नौजवान का मस्तक गर्व से उन्नत हो गया।
"हमारे यहाँ एक महापुरुष पधारे थे। उनकी बात मेरे दिल को छू गई। कह रहे थे, इच्छा ही दुखों का कारण है। इसीलिए मैं सारी इच्छाओं को तिलांजलि देकर घर से निकल पड़ा हूँ।'
"माना कि आपने सबकुछ छोड़-छाड़ दिया है। लेकिन इन गठरियों में कौन-सी चीज भर कर लाए हैं ?"खच्चर वाले ने पूछा।
उसे नौजवान ने कहाँ "सुना हे की इस जगह पर काफी ठंड पड़ती है। कोई चीज लानी हो तो आसपास दुकानें भी नहीं है। सो इन गठरियों में कुछ ऊनी कपड़े ले आया हूँ, ठंड से बचने के लिए।"
कंबल तक छोड़ने में असमर्थ होने के बावजूद जिंदगी छोड़कर आने का दावा करने वाले इस नौजवान की तरह कई लोग यही दंभ भरते हुए घूम रहे हैं कि हमने इच्छाओं को त्याग दिया है।
इच्छा के अभाव में जगत का अस्तित्व नहीं है। इच्छा के अभाव में यह शरीर नहीं रहेगा... प्राण नहीं रहेंगे।
जगत ने आपको कभी यह सीख नहीं दी है कि इच्छा मत पालो ।
अगर कोई आपको समझाए, 'इच्छाओं को जने पर सब कुछ जाएगा इससे बड़ी
बेवकूफी से भरी दलील और कोई नहीं हो सकती।
आपका मन संन्यास का ढोंग भरेगा... 'भाई मैंने तो सब कुछ त्याग करने का फैसला कर लिया " है।' मन बड़ा चालाक होता है। झूठी-सच्ची कुछ भी कहकर आपको ठगने की कला में माहिर है। लेकिन शरीर ?
जरा अपनी नाक और मुँह बंद कर लें, हवा को रंच मात्र भी अंदर न जाने दें और तमाशा देखते
रहिए थोड़ी देर तक एक मिनट या दो मिनट तक आपका शरीर सब्र कर लेगा फिर जीने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठेगी कि वह आपके हाथ को मुँह से बरबस हटा देगी। जितना घाटा हुआ उन सबकी भरपाई करते हुए जोर-जोर से आक्सीजन को अंदर खींचती जाएगी।
इच्छाओं का त्याग करने की मन की दलील शरीर के लिए मान्य नहीं होगी। क्योंकि उसे झूठ
बोलकर ठगने की कला नहीं आती।
कुल शरीर की क्यों कहें? शरीर के अंदर जो अनगिनत कोशिकाएँ हैं, उनमें से प्रत्येक कोशिका का प्रकार्य इच्छा के बल पर चल रहा है। मेहमान की भांति भले ही एक रोगाणु अंदर घुस जाए, फिर देखें तमाश, सभी कोशिकाएँ दलबंदी करते हुए उस पर हमला बोल देंगी, उसे
निकालने के बाद ही दम लेंगी। क्यों? किसलिए ?
इसलिए कि ब्रह्माण्ड ने उसे जीने की इच्छा दे रखी है।
और गहराई से सोचें तो इच्छाओं को तजने की इच्छा भी मूल रूप में एक इच्छा ही तो है ? आपके गाँव में कोई बाबाजी जरूर आए होंगे। उन्होंने यह भी कहा होगा, 'तुमने धन की लालसा की, यही तुम्हारे दुख का कारण है बेटे! तुम्हारा लगाव भगवान पर हो।"
मान लीजिए कि आपके पास दस करोड़ रुपए हैं। भगवान पर भरोसा करते हुए अगर आप यह सारा धन गरीबों में बाँट देंगे तो क्या उससे दुनिया में शांति छा जाएगी ? कल सुबह इस देश में गरीबों की संख्या में आपको मिलाकर एक और का इजाफा हो जाएगा,
बस!
हाथ में पैसा होने पर वह किस-किस काम आता है, इतना तो आप जानते ही हैं। लेकिन भगवान से क्या कुछ संभव है और क्या नहीं, इसका अंदाजा या अनुभव आपको नहीं है। यह नसीहत भी बार-बार दी जाती है सुख भोगने की इच्छा न करो, स्वर्ग पाने की इच्छा करो; - अधिकार चलाने की चाह न करो, शांति की इच्छा करो।
एक बार शंकरन पिल्लै जोर के पीठ दर्द से पीड़ित हुए। डॉक्टर ने एक्स-रे को उठाकर रोशनी में देखा "देखिए न, एक्स-रे में, आपकी रीढ़ की हड्डी कितनी घिस गई है? ऑपरेशन करना होगा "
'कितना खर्चा होगा, डॉक्टर साहब ?"
"मेरी फीस पच्चीस हजार रुपए। फिर अस्पताल में छह हफ्ते आराम करना होगा"
शंकरन पिल्लै भौचक्के रह गए। इतनी बड़ी रकम कहाँ से मिलेगी ? 'अभी आया डॉक्टर साहब!" कहते हुए शंकरन पिल्लै हाथ में एक्स-रे चित्र के साथ एक्स-रे
वाले के पास भागे।
उससे पूछा, "भाई साहब, क्या आप इस एक्स-रे में इत्ता-सा सुधार करके दे सकते हैं जिससे कि डॉक्टर को पच्चीस रुपए फीस देकर घंटे भर में इलाज से निजात पा लूँ... प्लीज ! " याँ एक्स-रे को वांछित रूप से बदलने वाले बाबाजी लोग ही आप को सलाह देते हैं, 'इच्छा'
को एक जगह से दूसरी जगह लगा लो।'
एक और बाबाजी आएँगे। वे आपको अनुमति देंगे, “ठीक है, ठीक है, इच्छाओं को पूर्ण रूप से छोड़ने की आवश्यकता नहीं है बेटे, थोड़ी-सी.... इत्ती भर रख लो, कोई बात नहीं।" आप भी यह सोचकर खुश हो जाएँगे कि "यदि मैं चाहूँ तो और भी इच्छाएँ पाल सकता हूँ।
लेकिन मेरे लिए इतनी ही पर्याप्त है।" अगर आप यही सोचकर इच्छा को कम कर लेंगे, तोइसी से आपको तृप्ति मिलेगी... संतोष अनुभव होगा।
लेकिन अगर आप यों सोचेंगे 'मुझे वह सब कहाँ मिलने वाला है, इतना ही मिल जाए तो बहुत है।' इस तरह की दलील देते हुए अपनी इच्छाओं के पंख काट लेंगे तो वह कायरता होगी। आपके मन में यहाँ संताप होगा, 'मेरा पड़ोसी जो है, हद दर्जे का लालची है। लेकिन उसे सब कुछ मिल जाता है। मैं तो बहुत थोड़े की इच्छा करता हूँ, मगर वह भी तो मुझे नहीं मिल
रहा है।'
इसीलिए मैं कहता हूँ, इच्छा कीजिए, बड़ी-बड़ी इच्छाएँ पालिए। इसका साहस किए बिना, अगर आप अपनी इच्छाओं को समेट लेंगे तो अपने जीवन में आप कौन-सा बड़ा तीर मारने वाले हैं ?
आइए, अपने जीवन स्तर को जीवन की दिशा को ही तय करने वाली इच्छाओं के बारे में और गहराई से जान लें..