मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध हिंदी कहानी: पूस की रात

मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' हिंदी में पूरी पढ़ें | हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट रचना

मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध हिंदी कहानी: पूस की रात

मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात का चित्रण - हिंदी साहित्य की क्लासिक रचना माहेक इंस्टीट्यूट रीव

परिचय: मुंशी प्रेमचंद की पूस की रात

मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात हिंदी साहित्य की एक अमर रचना है, जो एक गरीब किसान हल्कू और उसकी पत्नी मुन्नी के जीवन के कठोर संघर्ष को चित्रित करती है। यह कहानी हिंदी साहित्य में सामाजिक अन्याय, गरीबी और प्रकृति की क्रूरता के प्रति गहरी संवेदना को दर्शाती है। पूस की रात में प्रेमचंद ने हल्कू के माध्यम से उस किसान की व्यथा को व्यक्त किया है, जो कर्ज और ठंड के बीच फंसकर अपनी फसल की रक्षा करने की कोशिश करता है। यदि आप Poos Ki Raat in Hindi की तलाश में हैं, तो यहाँ आपको पूरी कहानी विस्तार से और हिंदी साहित्य के प्रेमियों के लिए उपयोगी जानकारी मिलेगी।

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है। लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे।

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली-तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कम्बल कहाँ से आएगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे। अभी नहीं।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कम्बल के बिना हार में रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमाएगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे दे, गला तो छूटे। कम्बल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली-कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्बल? न जान कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आओ। मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।

हल्कू ने रुपये लिए और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक पानी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की ठंडी रात

पूस की अँधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटाले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद नहीं आ रही थी।

हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा-क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ? जानते थे, मैं यहाँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँ, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आए। अब रोओ नानी के नाम को।

जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बर्फ लिए आ रही है। उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा आए तो गर्मी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कम्बल। मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए। जकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!

हल्कू उठा, गड्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।

हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ जरा, मन बदल जाता है।

जबरा ने उनके मुँह की ओर प्रेम से छलकता हुई आँखों से देखा।

हल्कू-आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी।

चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाए हुए था।

जब किसी तरह न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसका सिर थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद में चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया। हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता। कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था।

ठंड का प्रकोप और अलाव

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरू किया।

हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रही है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जाएँगे तब कहीं सबेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। पतझड़ शुरू हो गई थी। बाग में पत्तियों का ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ। रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देख तो समझे, कोई भूत है। कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रह जाता।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम हिलाने लगा।

हल्कू ने कहा-अब तो नहीं रहा जाता जबरू। चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टट्टे हो जाएँगे, तो फिर आकर सोएँगे। अभी तो बहुत रात है।

जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूँदें टप-टप नीचे टपक रही थीं।

एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खुशबू लिए हुए आया।

हल्कू ने कहा-कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है?

जबरा को कहीं जमीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। उसे चिंचोड़ रहा था।

हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया था। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पाँव गले जाते थे। और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानो ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।

उसने जबरा से कहा-क्यों जबरू, अब ठंड नहीं लग रही है?

जबरू ने कूँ-कूँ करके मानो कहा-अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?

‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।’

जबरू ने पूँछ हिलाई।

अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बचा, तो मैं दवा न करूँगा।

जबरू ने उस अग्नि-राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!

मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लड़ाई करेगी।

यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पाँवों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरू आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ।

हल्कू ने कहा-चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।

खेत का सर्वनाश

पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर अँधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी!

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।

जबरू जोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रही हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।

उसने दिल में कहा-नहीं, जबरू के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!

उसने जोर से आवाज लगाई-जबरू, जबरू।

जबरू भूँकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दँदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ता था। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर से आवाज लगाई-हिलो! हिलो! हिलो!

जबरू फिर भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार थी। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते थे।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा।

जबरू अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया।

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी और मुन्नी चिल्ला रही थी-क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।

हल्कू न उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है?

मुन्नी बोली-हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मँड़ैया डालने से क्या हुआ?

हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दर्द हुआ, ऐसा दर्द हुआ कि मैं नहीं जानता हूँ!

दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आए। देखा सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरू मँड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।

दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी, पर हल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

खेत की तबाही और नई शुरुआत

हल्कू और मुन्नी खेत की तबाही देखकर चुप खड़े थे। साल भर की मेहनत, जो फसल के रूप में तैयार थी, वह नीलगायों की भेंट चढ़ गई थी। मुन्नी की आँखों में निराशा थी, पर हल्कू के चेहरे पर एक अजीब-सी शांति थी। वह ठंडी रातों में खेत की रखवाली के बोझ से मुक्त हो चुका था।

मुन्नी ने गुस्से में कहा-यह सब तुम्हारी लापरवाही की वजह से हुआ। अगर तुम रात में जागते, तो क्या फसल इस तरह बर्बाद होती?

हल्कू ने जवाब दिया-मुन्नी, मैंने कोशिश की थी। मगर ठंड ने मुझे मार डाला। जबरू भूँकता रहा, पर मैं उस ठंड में हिल भी न सका। अब जो हो गया, सो हो गया।

मुन्नी ने गहरी साँस ली और बोली-अब क्या होगा? सहना फिर आएगा, और बाकी के लिए दबाव डालेगा। कहाँ से रुपये आएँगे?

हल्कू ने धीरे से कहा-मजूरी करेंगे, मुन्नी। कम से कम रात को ठंड में खेत की रखवाली तो नहीं करनी पड़ेगी।

मुन्नी कुछ देर चुप रही। फिर बोली-हल्कू, मैंने पहले ही कहा था, खेती छोड़ दो। यह खेती हमें खा रही है। मजूरी करो, कम से कम पेट तो भरेगा और यह कर्ज का बोझ सिर पर नहीं रहेगा।

हल्कू ने सिर हिलाया। वह जानता था कि मुन्नी सही कह रही है। खेती ने उन्हें कर्ज के जाल में फँसा रखा था। हर साल मेहनत करते, फसल उगाते, और फिर या तो कर्ज चुकाने में चली जाती या इस तरह जानवर बर्बाद कर देते।

उसने जबरू को देखा, जो अब भी मँड़ैया के नीचे लेटा था। उसने उसे प्यार से पुकारा-जबरू, चल, घर चलें।

जबरू ने धीरे से पूँछ हिलाई और उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। हल्कू और मुन्नी घर की ओर चल दिए। रास्ते में हल्कू ने सोचा, शायद अब वक्त आ गया है कि खेती छोड़कर मजूरी शुरू कर दी जाए। कम से कम रात को चैन की नींद तो आएगी।

घर पहुँचकर मुन्नी ने चूल्हा जलाया और दो रोटियाँ बनाईं। हल्कू और जबरू ने मिलकर खाना खाया। खाने के बाद हल्कू ने मुन्नी से कहा-कल से मैं गाँव में मजूरी की तलाश करूँगा। तू सही कहती है, इस खेती ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा।

मुन्नी ने हल्कू की ओर देखा और बोली-बस, अब इस कर्ज के चक्कर से निकलो। जबरू को भी कुछ अच्छा खाने को देना, बेचारा रातभर भूँकता रहा।

हल्कू ने जबरू के सिर पर हाथ फेरा और बोला-हाँ, जबरू मेरा सच्चा साथी है। इसने पूरी कोशिश की, पर मैं ही कमजोर पड़ गया।

अगले दिन हल्कू ने गाँव में मजूरी की तलाश शुरू की। उसे एक जमींदार के यहाँ काम मिल गया। मेहनत तो पहले जितनी ही थी, पर अब कम से कम रात को ठंड में खेत की रखवाली का बोझ नहीं था। मुन्नी ने भी गाँव में कुछ औरतों के साथ काम शुरू किया। दोनों ने मिलकर धीरे-धीरे अपने कर्ज का बोझ कम करना शुरू किया।

हल्कू को अब रात को चैन की नींद आती थी। वह जबरू के साथ बैठकर चिलम पीता और पुरानी बातें याद करता। उसे अपनी गलती का एहसास था, पर साथ ही उसे इस बात की राहत भी थी कि अब वह उस ठंडी रात के बोझ से मुक्त था।

कहानी से सीख

मुंशी प्रेमचंद की पूस की रात हमें सिखाती है कि गरीबी और सामाजिक अन्याय इंसान को कितना असहाय बना सकते हैं। हल्कू की कहानी यह दर्शाती है कि मेहनत के बावजूद किसान का जीवन कर्ज और प्रकृति की मार से जूझता रहता है। यह कहानी हिंदी साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद का एक शक्तिशाली उदाहरण है। प्रेमचंद की कहानियाँ हमें यह सिखाती हैं कि जीवन में हार नहीं माननी चाहिए, और मुश्किलों के बावजूद इंसान को अपने रास्ते तलाशने पड़ते हैं।

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