प्रेमचंद की क्लासिक कहानी: अनुभव - राष्ट्रवाद, त्याग और स्वाभिमान की प्रेरक गाथा
यह प्रेमचंद की कहानी मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक भावुक हिंदी साहित्य की रचना है, जहां एक महिला का राष्ट्रवाद और त्याग का सफर दर्शाया गया है। राष्ट्रवाद की कहानी प्रेमियों के लिए अनिवार्य पढ़ने योग्य, जिसमें स्वाभिमान और परिवार की परीक्षा की गहराई है।

भाग 1: सजा और मन का कुहराम
मेरे स्वामी को एक साल की सजा मिली है। उनका अपराध सिर्फ इतना था कि तीन रोज पहले जेठ की तेज गर्मी में उन्होंने कई राष्ट्र सेवकों की पानी व शर्बत के साथ खातिरदारी की थी। मैं उस दौरान कोर्ट में खड़ी थी। ऐसा लग रहा था मानो कमरे से बाहर खड़े शहर की सभी राजनीतिक चेतना किसी बंदी पशु की तरह जोर-जोर से चीख रही हो। मेरे स्वामी बेड़ियों से बंधे हुए लाए गए। इस दौरान हर तरफ सन्नाटा पसर गया, लेकिन मेरे मन में कुहराम मचा हुआ था।
क्रोध का आवेश मन ही मन फूटकर बाहर आना चाह रहा था। मुझे इतना गुमान कभी नहीं महसूस हुआ था। सामने कुर्सी पर बैठा अंग्रेज जज व उसके बगल में खड़े लाल रंग की पगड़ी बांधे पुलिस अफसर सभी मुझे नीच दिख रहे थे। बस यही मन कर रहा था कि तुरंत दौड़कर अपने स्वामी के पैरों में गिर जाऊं और वहीं प्राण त्याग दूं। कभी शांत, कभी चंचल तो कभी आत्मसम्मान से भरी मूर्ति सी दिख रही थी मैं। मेरे मुख पर किसी तरह का अफसोस या ग्लानि नहीं झलक रही थी। किसी की सेवा को अपराध करार देना व उसके एक साल की जेल की सजा सुनाना। गजब की न्याय व्यवस्था है।
ऐसे में तो मैं सौ बार ये गुनाह करने को तैयार हूं। मेरे स्वामी जाने लगे और जाते वक्त मेरी ओर देखकर मुस्कुराए और फिर आगे बढ़ गए। कोर्ट से बाहर आकर मैंने 5 रुपये की मिठाई खरीदी और कुछ राष्ट्रीय सेवकों को आमंत्रित कर मिठाई खिलाया। उसी दिन शाम होते ही मैं पहली बार कांग्रेस के जलसे में शामिल होने से खुद को रोक न सकी। यही नहीं मैंने मंच पर जाकर भाषण भी दिया। अंदर द्वेष इतना भरा था कि सत्याग्रह का प्रण भी ले लिया। उस समय मेरे अंदर इतनी शक्ति कहां से आ गई मुझे खुद भी पता नहीं चला, लेकिन हां सब कुछ न्योछावर हो जाने के बाद अब किस बात का डर था। भगवान का कठिन से कठिन प्रहार भी अब मेरा क्या ही बिगाड़ सकता था?
भाग 2: परिवार का त्याग और स्वार्थ
अगले दिन मैंने पिताजी व ससुरजी के लिए दो पत्र लिखें। ससुरजी को पेंशन मिलती थी और पिताजी जंगल के महकमे में अच्छे पोस्ट पर आसीन थे। परंतु अफसोस की सारा दिन बीत जाने के बावजूद कोई जवाब नहीं आया। उसके अगले दिन भी किसी का खत नहीं आया, लेकिन तीसरे रोज दोनों लोगों का जवाब आया। ससुरजी ने पत्र में लिखा था कि मुझे लगा था कि वृद्धावस्था में तुम दोनों मेरा सहारा बनोगे, लेकिन अब कोई फायदा नहीं। तुम दोनों ने मेरी आस पर पानी फेर दिया। मुझे सरकार से पेंशन मिलती है, लेकिन तुम्हें अपने यहां रखकर मैं इस पेंशन को नहीं खोना चाहता।
पिताजी के पत्र में भी कुछ ऐसा ही कठोर जवाब सुनने को मिला। पिताजी को इसी वर्ष ग्रेड मिलने वाला था, परंतु अगर वो मुझे अपने पास बुलाते, तो उन्हें ग्रेड से हाथ धोना पड़ता। ऐसे में वो मेरी मौखिक रूप से मदद करने के लिए तैयार थे। मेरा मन दुखी हुआ और मैंने इन दोनों खत को जला दिया व उसके बाद उन्हें और कोई खत नहीं लिखा। इसे ही कहते हैं स्वार्थ, जिसका प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वक्त पर अपनी संतान भी नहीं नजर आती। ससुर व पिता दोनों ने मुंह फेर लिया। लेकिन अभी मेरी आयु ही क्या है, अभी तो मुझे दुनिया देखनी है!
भाग 3: नए घर का आश्रय और खुफिया की छाया
इतने में किसी ने बाहर मेरे दरवाजे की कुंडी खटखटाते मुझे आवाज दी। मैं सहम गई, मेरे रौंगटे खड़े हो गए। मैं दरवाजे पर कान लगाकर सुनने की कोशिश कर रही थी कि कहीं वो बदमाश तो नहीं। फिर मैंने कठोर आवाज में कहा कौन है? क्या काम है? बाबू ज्ञानचंद की आवाज सुनकर मैं थोड़ी शांत हुई। ये मेरे स्वामी के सबसे अच्छे मित्र हैं। उनके साथ एक महिला भी आई थी। वह उनकी पत्नी थी।
पहली बार वो मेरे घर आईं, मैंने उन्हें आदर भाव से प्रणाम कर अंदर बुलाया। ये दोनों ऊपर आकर बैठे व बेहद ही दरियादिल से मुझे संतावना देने लगे। उनकी पत्नी के विचार देखकर मुझे ये समझ आ गया कि वो एक सशक्त महिला है। उनके चेहरे से ही उनकी प्रतिभा झलक रही थी। दोहरी कदकाठी के साथ चेहरे पर रोब व जेवरों से लदी किसी महारानी से कम नहीं लग रही थी। खास बात तो ये थी कि बाहर से वो जितनी ही कठोर दिख रही थी अंदर से उतनी ही करुणा से भरी हुई थी।
उनसे बातचीत शुरू हुई, ज्ञान जी की पत्नी- “क्या घर पर किसी को खत लिखा ?” मैंने कहा- “हां।” ज्ञान जी की पत्नी- “कोई घर से लेने आ रहा ?” मैंने कहा- “नहीं, पिताजी व ससुरजी में से कोई मुझे अपने साथ रखने को तैयार नहीं है।” ज्ञान जी की पत्नी- “तो फिर आगे क्या करने का सोचा है?” मैंने कहा- “फिलहाल के लिए तो यही पर हूं।” ज्ञान जी की पत्नी- “हम लोगों के साथ हमारे घर क्यों नहीं चल रही हो? अकेले मैं तुम्हें यहां नहीं रहने दूंगी।”
इस दौरान खुफिया के दूत घर के बाहर डटे हुए हैं। मुझे आशंका हो गई थी कि ये खुफिया के दूत ही होंगे। ज्ञान जी ने अपनी पत्नी की ओर देखा और पूछा मैं तांगा ले आऊं? ज्ञान जी की पत्नी ने इशारे में ही आज्ञा दे दी, ज्ञान जी तुरंत द्वार की तरफ चले। तभी ज्ञान जी की पत्नी ने बोला- “रूको, कितने तांगे लेकर आओगे।” ज्ञान जी घबरा कर बोले- “कितने?” ज्ञान जी की पत्नी- “हां कितने, एक तांगे पर सिर्फ तीन लोग ही बैठ सकते हैं, बाकी के सामान बिस्तर, बर्तन आदि कैसे जाएंगे ?”
ज्ञान जी- “फिर दो ले आऊं, ज्ञान जी बोले।” ज्ञान जी की पत्नी- “एक तांगे पर कितना सामान जाएगा ?” ज्ञान जी- “फिर ठीक है तीन ले आता हूं?” ज्ञान जी की पत्नी- “हां, तो जाओ भी अब इतनी देर क्यों कर रहे हो।” जब तक मैं कुछ कहती तब तक ज्ञान जी निकल गए। मैंने संकोचते हुए उनकी पत्नी से कहा, “मेरे आने से आपको तकलीफ होगी।” कठोर वाणी में ज्ञान जी की पत्नी ने बोला- “हां, तकलीफ तो होगी, तुम किलो भर आटा खाओगी, घर का एक जगह भी घेर लोगी ये सब क्या कम कष्ट है।”
इतना सुनकर मैंने कहा- “क्या बहन आप भी।” उनकी पत्नी ने मेरा कंधे पर हाथ रखकर बोला, “जब तुम्हारे स्वामी वापस आ जाए, तो मुझे अपने घर में रख लेना। हिसाब बराबर हो जाएगा। अब ठीक है ना, तो चलो सारा सामान बांध लो।” ये सब देखकर बिल्कुल सपने जैसा लग रहा था, इतनी उदार स्त्री मैंने आजतक नहीं देखी थी। मुझे उनमें बड़ी बहन दिख रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे क्रोध व चिंता जैसी चीजों पर उन्होंने काबू पा लिया है।
हर वक्त उनके मुख से मधुर वाणी निकलती थी जैसे मानों सरस्वती का वास हो। उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन फिर भी वो दुखी नहीं थी। घर का काम वो स्वयं करती और बाहर के काम के लिए एक लड़का रख रखा था। आश्चर्य तो इस बात का था कि दिन भर मेहनत करने के बाद भी वो कभी आराम न करती। यही नहीं उनका आहार भी बेहद कम था। इतना ही नहीं दिन भर वो मुझे कुछ न कुछ खिलाने के लिए परेशान रहती। एक काम नहीं करने देती, बस यहां यही बुरा लगता था। मगर इनके घर कैसे एक सप्ताह गुजर गया पता तक नहीं चला।
तभी मुझे एक दिन वो दूत यहां दिखाई दिए। उन्हें यहां देख मैं घबरा गई। मैंने सोचा ये मेरे पीछे यहां तक आ गए। तभी उन्होंने कहा कि कुत्ते हैं भौंकने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। मैं मन ही मन चिंतित थी। मैंने बोला- “कुत्ते हैं, काट भी तो सकते हैं।” ज्ञान जी की पत्नी ने कहा- “तो क्या इनके डर से भागना नहीं चाहिए।” मैं बार-बार उनके बारे में सोचती, छज्जे से जाकर देखती तो वो बाहर नजर आते थे। हाथ धोकर ये मेरे पीछे पड़ गए थे। मन ही मन सोचती कि मैं इनका क्या बिगाड़ सकती हूं? आखिर मैं हूं ही क्या? क्या ये नहीं चाहते कि मैं यहां रहूं, पर ऐसा कर उन्हें क्या हासिल होगा? ये सब सोचते हुए एक और सप्ताह बीत गया। उन दोनों दूत ने अपना डेरा वहीं जमा लिया था। ऐसे में मैं और ज्यादा बेचैन थी। किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी।
भाग 4: संकट और स्वाभिमान की जीत
एक रोज संध्या के वक्त ज्ञान जी घर आए, घबराए हुए नजर आ रहे थे। मैं बरामदे में सब्जी काट रही थी। ज्ञान जी सबसे पहले कमरे में गए और अपनी पत्नी को बुलाया। उनकी पत्नी ने कहा अरे अचानक से क्या हो गया, पहले हाथ मुंह धो लो कपड़े बदल लो, कुछ खाओ तब आराम से बैठकर बात करते हैं। उन्होंने पत्नी से बात करने के लिए दोबारा आग्रह करते हुए कहा, ‘तुम क्यों नहीं समझ रही, मेरी जान पर बन आई है।’ फिर भी ज्ञान जी की पत्नी ने वहीं बैठे हुए कहा कि बात क्या है, बताते क्यों नहीं।
ज्ञान जी ने कहा- पहले इधर आओ। इतने में मैं खुद वहां से दूर जाने लगी, तभी ज्ञान जी की पत्नी ने मुझे हाथ पकड़कर रोक लिया। मैं कोशिश करके भी उनसे हाथ नहीं छुड़ा पाई। ज्ञान जी मेरे सामने वो बात नहीं कहना चाहते थे, लेकिन उनसे इंतजार भी नहीं हो रहा था। उन्होंने तुरंत कहा आज मेरे व प्रधानाचार्य के बीच झगड़ा हो गया। पत्नी ने बड़े ही बनावटी शब्दों में कहा- “क्या सच में, तब तो तुमने उन्हें खूब पीटा होगा ?”
ज्ञान जी- “तुम्हें मजाक सूझ रहा है, यहां मेरी नौकरी आफत में है।” पत्नी- “जब इतना ही डर था, तो झगड़े क्यों?” ज्ञान जी- “मैं नहीं झगड़ा, उसने मुझे बुलाकर खूब सुनाया।” पत्नी- “बिना मतलब के?” ज्ञान जी- “अब क्या बताऊं।” पत्नी- “मैंने कई बार बोला है ये मेरी बहन है। तुम इसके सामने सबकुछ बोल सकते हो।” ज्ञान जी- “अच्छा, पर जब बात इनके बारे में हो तो ?”
पत्नी ने कहा- “मैं समझ गई, खुफियों से तुम्हारी अनबन हुई होगी और पुलिस ने तुम्हारे स्कूल में शिकायत कर दी होगी।” ज्ञान जी सोचते हुए- “नहीं ऐसा नहीं है, लेकिन पुलिस ने हाकिम जिला के यहां शिकायत की और उसने प्रधानाचार्य से। प्रधानाचार्य ने मुझसे जवाब मांगा है।” पत्नी ने कहा- “प्रधानाचार्य ने कहा होगा कि उस महिला को अपने घर से बाहर करो।” ज्ञान जी- “हां, कुछ ऐसा ही समझ लो।”
पत्नी- “फिर तुमने क्या कहा?” ज्ञान जी- “फिलहाल मैंने कुछ नहीं कहा है, वहां कुछ समझ नहीं आ रहा था।” पत्नी ने गुस्से में कहा- “जब तुम इसका जवाब जानते हो फिर सोचना कैसा?” ज्ञान जी सहम कर बोले- “मैं ऐसे अचानक कैसे बोल देता।” पत्नी गुस्से में बोली- “जाओ अभी जाकर अपने प्रधानाचार्य से कहो कि मैं उसे नहीं निकाल सकता और अगर न माने, तो नौकरी से इस्तीफा देकर घर आना। अभी तुरंत जाओ।”
मैं अपने आंसू नहीं रोक पाई, रोते हुए मैंने कहा बहन ये सब क्यों… ज्ञान जी की पत्नी ने मुझे डांटा और कहा- “तुम बिल्कुल चुप रहो, नहीं तो कान पकड़ लूंगी। तुम क्यों बीच में बोलती हो। हम जब भी रहेंगे, तो एक साथ ही रहेंगे। अगर जिएंगे तो साथ, मरेंगे तो भी साथ।” पति को सुनाते हुए कहा- “इनकी आधी उम्र बीत गई, लेकिन इन्होंने कुछ नहीं सीखा। अब खड़े क्यों हो, तुम्हें बोलने में डर लग रहा तो मैं जाकर कह दूं।”
ज्ञान जी ने गुस्सा होकर बोला- “कल जाकर बोल दूंगा, इस समय पता नहीं वो होगा भी या नहीं।” इधर पूरी रात मैं नहीं सो पाई, पिता व ससुरजी जिसे दोनों ने ठुकरा दिया हो। उस दासी को इन्होंने इतनी इज्जत दी। ज्ञान जी की पत्नी सच में किसी देवी से कम नहीं है।
अगले दिन ज्ञान जी निकल रहे तभी पत्नी ने कहा- “जवाब देकर आना।” ज्ञान जी के जाने के बाद मैंने कहा- “बहन तुम ये सही नहीं कर रही हो, मुझे ये बर्दाश्त नहीं हो रहा कि मेरी वजह से तुम्हारे परिवार पर परेशानी आए।” ज्ञान जी की पत्नी से हंसते हुए कहा- “हो गया या और कुछ बोलना है।”
ज्ञान जी की पत्नी ने पूछा कि अच्छा ये बता कि तुम्हारे स्वामी आज जेल की सजा क्यों काट रहे? बस इसलिए क्योंकि वो राष्ट्रीय सेवकों की सेवा कर रहे थे। आखिर राष्ट्र की सेवा करने वाले वो लोग कौन हैं? ये हमारे लिए क्यों संघर्ष कर रहे हैं? इनका भी तो परिवार होगा, कारोबार होगा पर ये सब त्यागकर वो हमारे लिए लड़ रहे हैं। ऐसे लोगों की सेवा कर जेल जाने वाले तुम्हारे पति भी किसी वीर से कम नहीं। ऐसे वीर की पत्नी के दर्शन मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाएगी। फिर मैं नहीं तू मुझपर एहसान कर रही है।
भाग 5: जीत और कहानी की सीख
मैं चुपचाप उनकी बात सुनती रही और कुछ नहीं बोल पाई। संध्या हो गई ज्ञान जी घर आए, तो उनके चेहरे पर अलग सी चमक नजर आ रही थी। पत्नी ने पूछा- “हारकर आए या जीतकर?” ज्ञान जी ने स्वाभिमान के साथ कहा- “जीतकर!” जब मैंने नौकरी से इस्तीफा दिया, तो उसका दिमाग चकरा गया। तभी उसने हाकिम जिला के पास जाकर बात की। वापस आकर उसने बोला आप राजनीतिक जलसों में क्यों नहीं शरीक होते।
मैंने बोला- “ना भाई मैं कभी न जाऊं।” उसने पूछा- “क्या आप कांग्रेस के सदस्य हैं?” मैंने बोला- “नहीं, और न ही किसी सदस्य से मेरा कोई संबंध है।” उसने पूछा- “क्या कांग्रेस के फंड में आप दान करते हैं?” मैंने बोला- “ना भाई फूटी कौड़ी भी नहीं।” उसने कहा- “तो ठीक है मैंने आपका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया।”
पत्नी ने ये सुनते ही ज्ञान जी को गले से लगा लिया। कहानी से सीख – स्वाभिमान व त्याग की भावना से किया हर काम किसी के दिल में आपके लिए आत्मसम्मान को बढ़ा सकता है। साथ ही बुरा वक्त अपनों व परायों की सही पहचान भी करा देता है।