प्रेमचंद की क्लासिक कहानी: अंधेर - नागपंचमी, प्रतिद्वंद्विता और अन्याय की प्रेरक गाथा
यह प्रेमचंद की कहानी मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक भावुक हिंदी साहित्य की रचना है, जहां नागपंचमी के उत्सव, गांव की प्रतिद्वंद्विता और पुलिस के अन्याय को दर्शाया गया है। नागपंचमी की कहानी प्रेमियों के लिए अनिवार्य पढ़ने योग्य, जिसमें सामाजिक अन्याय और ग्रामीण संस्कृति की गहराई है। महेक इंस्टीट्यूट रीवा द्वारा प्रस्तुत।

भाग 1: नागपंचमी का उत्सव और गांवों की होड़
नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:
साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते:
साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार, उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार
गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।
भाग 2: अंधेरी रात में बदले की साजिश
दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें।
इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है: मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे। अचानक उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।
भाग 3: पुलिस का आगमन और भय का माहौल
गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी।
आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी।
दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता!
दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!
भाग 4: रिश्वत और गौरा का फैसला
मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले--यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।
गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा--दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।
गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला--पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?
मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।
लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला--मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।
गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा--अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।
भाग 5: सत्यनारायण की कथा और गांव की संस्कृति
फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं।
मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी। यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है। लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है।
शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण की महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।
गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।
कहानी से सीख: मुसीबत पड़ने पर दिमाग से काम लेना चाहिए, यूं ही किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए।
साठे की तरह ही पाठे दोनों गंगा किनारे बसे हुए गांव थे। दोनों ही गांवों के बीच हमेशा से ही मुकाबले होते रहते थे। साठे के लोगों को गर्व था कि उन्होंने कभी पाठे वालों को सिर उठाने नहीं दिया। ठीक इसी तरह पाठे वालों को इस बात का घमंड था कि उन्होंने कभी साठे वालों को किसी मुकाबले में जीतने नहीं दिया।
पाठे वाले लोग हमेशा ये गाना गाते थे, “साठे वाले हैं कायर, पाठे वाले हैं और हमेशा रहेंगे सरदार।”
वहीं, साठे वाले गाते थे, “हम हैं साठ हाथ वाले, जो रखते साथ तलवार, पाठे वालों को हराने के लिए लिया है हमने अवतार।”
आपस के इस मुकाबले को साठे और पाठे के बच्चे अपने खून में ही लेकर पैदा होते थे। आपसी मुकाबले को दर्शाने का सबसे अच्छा मौका नागपंचमी का ही होता था। इस दिन के लिए दोनों जगहों में सालभर तैयारियां होती थीं। दोनों गांव के जांबाज कुश्ती के लिए आखाड़े पर उतरते थे। साठे वालों को गोपाल पर खूब गर्व था और पाठे वालों को बलदेव की ताकत पर।
आज भी बलदेव और गोपाल मैदान पर उतरे थे। दोनों अपनी-अपनी ताकत दिखा रहे थे। उनमें जीतने का जुनून था। लोग भी उनके दांव-पेंच देख रहे थे। तभी अचानक वहां खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अपनी खुशी का इजहार करने के लिए कुश्ती देखने के लिए खड़े लोग कभी पैसे उछालते, कभी टोपी, तो कभी बर्तन व बताशे उड़ाते। वहां मौजूद लोगों ने गोपाल को गोद में उठा लिया और जश्न मनाने लगे। बलदेव और उसके जीतने की आस रखने वाले लोग मन-ही-मन निराश हो गए।
रात के दस बजे का समय था, हल्की बिजली चमक रही थी, बारिश पड़ रही थी और पूरी तरह अंधेरा था। सिर्फ वहां अब मेंढ़कों की ही आवाज आ रही थी। अंधेरा इतना गहरा था कि साठे की झोपड़ियां भी नजर नहीं आ रहीं थीं। गांव से थोड़ी दूरी पर खेत थे, जहां फसल लहलहा रहे थे। वहां जंगली जानवरों की आवाज ही आती थीं। इसके अलावा, कोई दूसरी आवाज आती, तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। उस अंधेरे में आग की लपटें ही सहारा होती थी। उस लहलहाते खेत की रखवाली करने का जिम्मा हर रात को किसी-न-किसी का होता था। अब किसानों का गांव था, तो खेती-बाड़ी की चिंता तो करना तो बनता था। इस रात खेती की देखरेख करने का जिम्मा गोपाल का ही था।
चारों तरफ काली अंधेरी रात थी। वो खेतों के आसपास ही था, लेकिन नींद बहुत तेज आ रही थी। वो किसी तरह से अपनी नींद को भगाने की कोशिश कर रहा था। इसी कोशिश में कुछ देर बाद गोपाल हल्की आवाज में गाने लगा। तभी गोपाल को पांव की आहटें सुनाई दीं। कान लगाकर गोपाल इन आहटों को सुनने लगा और अब उसकी नींद भी गायब हो गई थी।
वो डंडा हाथ में लेकर इधर-उधर देख रहा था। तभी उसके सिर पर किसी ने जोर से लाठी मार दी। वो नीचे गिरा और रातभर वहीं बेहोश पड़ा रहा। बेहोशी की हालत में भी उसपर कई बार वार किए गए। उस पर वार करने वालों को लगा कि वो मर गया है, लेकिन ऐसा नहीं था। हमला करने वाले पाठे के लोग थे, जिन्होंंने अंधेरे में अपनी हार का इस तरह से बदला लिया था।
गोपल न तो पढ़ा-लिखा था और न ही तेज दिमाग वाला। बस उसका शरीर छह फुट का था और आवाज काफी भारी। मन से ऐसा निडर कि शेर की दहाड़ से भी न डरे। आज वो चोट खाए हुए अपने घर के बिस्तर में लेटा हुआ था।
रात को हुई इस तरह की वारदात की वजह से गांव में पुलिस पहुंच गई। गांव में पुलिस को देखकर कुछ लोग डर गए, तो कुछ रोने-धोने लगे। गोपाल ने अपने साथ जो भी हुआ उसकी रिपोर्ट भी नहीं लिखाई थी।
दरोगा ऐसा था कि बिना गाली के उसके मुंह से एक बात भी नहीं निकलती थी। वो मुखिया से सवाल जवाब करने लगा।
मुखिया ने दरोगा से कहा, “मुझे माफी दे दीजिए।”
दरोगा ने पूछा कि अगर मुझे इसी तरह से तुम्हें माफ करना होता, तो मैं यहां क्यों आता?
मुखिया चुपचाप गोपाल की पत्नी गौरा के पास पहुंचा। उसने कहा कि यह पुलिस वाला काफी बेकार है। पैसों के बिना बात ही नहीं करता था। उसे पचास रुपये चाहिए। मैंने उसे बहुत मनाने की कोशिश की, लेकिन वो किसी की एक नहीं सुनता।
गौरा ने मुखिया से कहा कि पैसे की क्या बात है। बस हमारे पति की जान बच जाए। जान से बढ़कर और कुछ नहीं होता। आज के लिए ही तो कमाया था ।
गोपाल इन सभी बातों को खाट पर लेटे-लेटे सुन रहा था। उसने कहा कि जब किसी ने कोई गलती ही नहीं की, तो पचास रुपये क्यों देना। उसे एक पैसा भी नहीं दिया जाना चाहिए।
ये बात सुनकर मुखिया का चेहरा पीला पड़ गया। वो बोले, “धीरे कहो इन बातों को। अगर दरोगा ने सुन लिया, तो परेशानी बढ़ जाएगी।”
गोपाल ने जवाब दिया, “एक कौड़ी उसे नहीं दी जाएगी। देखता हूं कि मेरी बातें सुनकर कौन मुझे फांसी पर चढ़ाता है।”
तभी गौरा ने मजाक में कहा कि ठीक है, आपसे मैं पैसे मांगू तो बिल्कुल भी मत देना। इतना कहने के बाद गौरा अंदर गई और एक पोटली में पैसे लेकर आई। फिर मुखिया को पैसा दे दिया। यह सब देखकर गोपाल को बहुत गुस्सा आया और मुखिया पैसे लेकर तुरंत भाग गया।
मुखिया पैसे लेकर बाहर आया। दरोगा भी वहीं मौजूद था, उसने गोपाल की बातें सुन ली थी। उसके मन में हो रहा था कि गोपाल पैसे दे दे। अब पचास रुपये बाहर आते-आते 25 हो गए थे। मुखिया ने 25 रुपये दरोगा को दिए और चला गया। मुखिया ने गोपाल को शुक्रिया कहा। पूरे गांव वालों के सामने मुसबित टालने का सेहरा मुखिया ने अपने सिर पर लिया और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। उधर गोपाल ने गौरा पर गुस्सा किया।
अब गांव में सत्यनारायण की कथा हुई। देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होने लगी। आखिर गांव से मुसीबत जो टल गई थी।
सभी लोग मिलकर सत्यनारायण की कथा सुनने लगे। गोपाल भी चादर ओढ़कर कथा सुनने लगा। वहां गांव के कई प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद थे। पटवारी ने गोपाल से कहा कि सत्यानारायण की वजह से ही तुम पर किस तरह की आंच नहीं आई। गोपाल ने अंगडाई लेते हुए कहा कि सत्यनारायण की महिमा का तो नहीं पता, लेकिन यह अंधेर जरूर है।
कहानी से सीख : मुसीबत पड़ने पर दिमाग से काम लेना चाहिए, यूं ही किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए।