समस्याएं मनुष्य के सामने मात्र इसलिए आती है कि वह उन में पता लगा सके कि वह कितना सक्षम है? ठीक इसी तरह प्रान भी होते हैं । हर प्रश्न अपना उत्तर पा लेना चाहता है- किंतु इस सृष्टि में अनेक अनउत्तरित प्रश्न हैं जो मानव समाज से प्रतिउत्तर पाना चाहते हैं । यह प्रश्नों का जंगल हर मनुष्य के हृदय में होता है, और वह इस जंगल की भुल भुलैया में प्रतिदिन भटकता रहता है। प्रश्नों का स्वरूप मनुष्य की मानसिकता पर अपने आसपास के परिवेश पर निर्भर करता है। प्रश्नों के विषय में मनोविज्ञान में कहा गया है कि कभी भी बच्चों के प्रश्नों को दवाओ मत अन्यथा वह कुंठित हो जायेंगे, उनकी स्वाभाविक जिज्ञासा की भावना नष्ट हो जायेगी।'
इसी कारण हमने परिवार में माह के दो दिन प्रश्न-उत्तर हेतु निश्चित कर दिए हैं। पहली बार मैं अपने बड़े पुत्र एवं छोटी बिटिया से प्रश्न करता हूं। वह प्रश्न हर विषय पर होते हैं उनके उत्तर यदि यह नहीं दे पाते तो मैं उन्हें उसका उत्तर भी दे देता हूं।
किंतु पिछले तीन बार से मैं इस प्रश्न परीक्षा में लगातार असफल हो रहा हूं आप शायद हंस रहे होंगे - अपने परिवार के सदस्यों से मैं कैसे हार जाता हूं।
मैं एक संध्या कार्यालय से जल्दी ही लौट आया था और अपने लान में बैठा था - पश्चिम में सूर्य धीमे-धीमें अस्त हो रहा था - नभ पर पक्षी अपने घर को लौटने लगे थे मन्द मन्द बयार बह रही थी, बसंत का मौसम आ चुका था, इसलिए हवा में महक घुली थी और मौसम गुलाबी जाड़ा लिए अपनी मादकता प्रगट कर रहा था।
तब ही मेरा बड़ा पुत्र सूरज और छोटी पुत्री संध्या मेरे सामने आकर कुर्सी पर बैठ गए, उनका आना ही इस बात का संकेत था कि 'पापा तैयार हो जाइए हम लोगों के प्रश्नों के उत्तर के लिए।' "मैं विचार करता हूं वे शायद माह के पूरे तीस दिन इसी में बिता जाने
देते हैं कि पापा को कैसे हरायने ?' पिछले दो तीन बार मेरे
से जब मैं भी पूरी तैयारी करने लगा था, अखबार, पत्रिका एवं इतिहास पर दृष्टि डालने लगा था, सच कहूं इस बहाने मेरे ही ज्ञान में वृद्धि होने लगी थी ।
मैंने भी बिना कोई भूमिका बांधे- उनसे कहा- 'हां बेटे ! अपने प्रश्न पूछना प्रारम्भ करो।' मेरे बड़े पुत्र ने प्रथम प्रश्न किया- 'पापा आसमान क्या है ?"
मैं सोच में पड़ गया-क्या कहूं गैस पिण्ड अथवा हवा-वायु-मंडल ?
मैंने बड़े सोचने के बाद कहा- 'बेटा आसमान याने शून्य स्थान । तब मेरी छोटी पुत्री ने पूछा, 'शून्य स्थान का क्या अर्थ होता है पापा ?" 'जहाँ कुछ भी नहीं हो।' मैंने स्पष्ट करते हुए कहा।
'याने जहां कुछ भी नहीं होता वहाँ आसमान होता है, है ना
पापा ।' मेरी पुत्री ने कहा ।
'हां बेटी !'
तब मेरे बड़े पुत्र ने तुरन्त कहा— तब ही कल रमेश अंकल आप से बात करते में कह रहे थे 'मन बड़ा खाली खाली लग रहा है, तो क्या मन आसमान है पापा ?".
इच्छा तो हुई कह दूं 'मन का विस्तार आकाश के समान ही विस्तार वाला है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है। किंतु ऐसा कहने पर मन आत्मा की परिभाषा और देनी होगी जिसके विस्तार- सीमा का ज्ञान किसी को नहीं हो सका उसे शब्दों में कैसे बांध सकता था। अतः मैंने धीमें से कहा- 'पता नहीं बेटा !'
मेरी छोटी पुत्री ने झट से अपने कागज पर एक का निशान अंकित कर लिया याने पापा पर एक पाइन्ट चढ़ चुका था । मेरे बड़े पुत्र ने ही दूसरा प्रश्न किया- पापा हिंदू किसे कहते हैं?"
मैंने सोचा अब सरल प्रश्न आए हैं इनका उत्तर तो तुरन्त दे दूंगा मैंने कहा- 'जो हिंदू धर्म माने ।'
'और पापा मुसलमान किसे कहते हैं ?" 'जो मुस्लिम धर्म माने।'
'लेकिन पापा दोनों धर्म मानने वाले इन्सान ही होते हैं ना ?'
'हाँ बेटे !'
"फिर ये अलग-अलग धर्म क्यों मानते हैं ?' 'क्योंकि बेटे उन्हें यह अच्छा लगता है।'
मेरे बेटे ने शरारत भरते हुए फिर पूछा- 'याने पापा मनुष्य को जो अच्छा लगे वह अच्छा धर्म होता है, लेकिन जो अच्छा ही होता है उसे
वे नहीं मानते हैं ना पापा।' 'पता नहीं बेटा !' मैंने धीमें स्वर में कहा तो मेरी पुत्री ने तुरंत
कॉपी में एक और पाइन्ट लिख लिया- लिखकर ऊपर दृष्टि उठाकर
कही- 'पापा अब मेरा प्रश्न है ?"
'भगवान को कितनी भाषाएं आती हैं ?" 'उमे बेटी सब भाषाएं आती हैं।'
'पापा उसे लिखना पढ़ना भी आता है ?" 'हां बेटी उसे सब आता है ।'
'पापा मैंने तीन दिन पहले उसे एक पत्र लिखकर वहाँ मन्दिर में रख दिया था - किंतु आज जब देखा तो वह कचरे के डब्बे में पड़ा था।' मैंने संयत होते हुए पूछा - 'पत्र में क्या लिखा था ?' 'पापा लिखा था - महंगाई कम कर दे, लोग आपस में लड़ना छोड़
कर शांति से रहने लगें, अच्छे सुख के दिन भिजवा दे ।'
'बेटी उन्होंने वह चिट्ठी पढ़ ली-अब उस पर वे अमल करने वाले
होंगे।' मैंने उसे झूठा दिलासा दिया तो उसने तुरंत तुनक कर कहा- पापा आप झूठ कहते हैं, क्योंकि रहमान चाचा के गुट्टू ने भी छ माह पूर्व मजार पर खत रखा था, उनके भगवान ने भी कोई कार्यवाही आज तक नहीं करी - आप की बात पर हमें विश्वास नहीं है ।'
'हो सकता है बेटी तुम सही हो ।'
पुत्री ने कॉपी में एक नम्बर और बढ़ा दिया फिर मेरे पुत्र ने
कहा 'पापा हिंदू धर्म में क्या है ?'
"सच्चाई से रहना, सबसे प्रेम करना ।' 'और मुसलमान धर्म में क्या है ?'
'ईमानदारी से रहना, सबकी इज्जत करना ।' 'पापा दोनों में क्या अंतर है ?"
'बेटा एक अल्लाह को मानते हैं, एक भगवान को पूजते हैं।
मेरी पुत्री ने पूछा- 'अल्लाह और भगवान कौन हैं ?"
'बेटी दोनो ईश्वर के नाम हैं।'
मेरे पुत्र ने कहा- 'पापा दोनों ही ईश्वर के नाम हैं तो फिर दोनों
एक ही ईश्वर को क्यों नहीं मानते ?'
'यह नहीं जानता बेटा ।' पुत्री संध्या ने एक पाइन्ट और लिख लिया — तब प्रसन्न होते हुए मेरे पुत्र ने अगला प्रश्न किया-'पापा ये दोनों जाति के लोग कभी-कभी क्यों लड़ते हैं ?'
'बेटे वे नहीं लड़ते - साम्प्रदायिक लोग उन्हें लड़वाते हैं ।' 'और पापा ये भोले इन्सान लड़ने लगते हैं, ये अपनी बुद्धि से नहीं
सोचते ?' 'बेटा उन्हें कुछ लोग लड़ने को मजबूर करते हैं।'
'कौन लोग पापा ?'
'कुछ नेतानुमा गुंडे लोग ।'
उसके इस अकस्मात प्रश्न से मैं भौंचक्का रह गया क्योंकि मैं यदि कहा भगवान बड़ा होता है तो वह तुरन्त कहती फिर इन नेता गुंडों को खत्म क्यों नहीं करता है ? और कहता गुंडे बड़े होते हैं तो वह कहती याने भगवान का कोई पृथ्वी पर अब अस्तित्व रहा ही नहीं, इसलिए मैंने दो वाक्य कहे- 'पता नहीं ।'
पुत्री ने एक और प्वाइन्ट लिख लिया तब बड़े पुत्र ने पूछा - 'पापा !
ये नेता क्या होता है ?'
'जनता का प्रतिनिधि- जनता का सेवक ।' 'पापा यह जनता की सेवा भी करता है ?"
'बेटे ! यह समय ऐसा चल रहा है कि तुम सेवा बिल्कुल मत करो किंतु प्रचार साधनों का उपयोग करके कहो, सेवा कर रहा हूं' याने आप सेवा कर रहे हैं एवं सेवा कर रहे हैं किंतु किसी को उसका ज्ञान नहीं है, उसका शोर नहीं है, तो आप बिल्कुल सेवा नहीं कर रहे हैं।'
मेरी पुत्री ने कहा- 'हमारे सारे जन-प्रतिनिधि तो शोर करके ही सेवा करते हैं याने पापा के बिल्कुल सेवा नहीं करते हैं।' 'पता नहीं बेटी।'
मेरे पुत्र ने फिर पूछा 'पापा चुनाव में इतनी सारी पार्टियाँ चुनाव क्यों लड़ती है ?"
'बेटा जनता की सेवा करने के लिए।'
'क्या पापा चुनाव में जीत कर ही सेवा होती है। बगैर चुनाव लड़े
सेवा नहीं होती है।' 'क्या पता बेटा ।'
"अच्छा पापा ! ये कलेक्टर, एस०डी०ओ०, तहसीलदार क्या करते
'बेटा जनता की सेवा करते हैं।'
'पापा इतने सारे सरकारी आदमी सेवा करते हैं तो फिर जनता
दुखी क्यों रहती है ?' 'क्योंकि बेटा नेताओं कलेक्टर, एस०डी०ओ०, तहसीलदार की सेवा जनता को ही करनी पड़ती है इसलिए वह दुखी रहती है।'
'पापा जनता स्वयं अपनी सेवा क्यों नहीं कर लेती ?' 'मैं नहीं जानता बेटा !' 'पापा ये बड़े लोग इतना धन जोड़कर क्या करते हैं ?'
'सुख प्राप्त करने को जोड़ते हैं ।' 'पापा क्या धन से सुख भी मिलता है ?" 'बेटे सुख 'मिलने की कल्पना करते हैं।'
'क्या पापा के धन जोड़ने वाले कभी मरेंगे नहीं ?' 'बेटा सबको मरना ही पड़ता है।' अमीरों को भी और नेताओं को भी ?'
'हां बेटे सबको ।'
'फिर पापा ये सुख की कल्पना ही क्यों करते हैं ? मरने की कल्पना
क्यों नहीं करते हैं ?' 'बेटा इस तरह की अशुभ बातें मुंह से नहीं निकालनी चाहिए
'क्यों पापा – जीवन सुख है तो मृत्यु अशुभ क्यों है ?' "पता नहीं बेटा ?"
पुत्री की कॉपी में न जाने कितने प्वाइन्ट लिखे जा चुके थे। मैंने सोचा अब यह प्रश्नों की वर्षा रुक जाए तो कुछ शांति मिले तो संध्या ने कहा - 'पापा मेरा अंतिम प्रश्न है पूछ लूं ?' मैंने कहा- 'पूछ लो क्या पूछना है ?'
'पापा कल समाचार पत्र में पढ़ा था मन्दिर से भगवान जी की
चांदी की आंखें चोर चुरा ले गए, क्या यह सच है?"
मैंने सोचा अरे यह तो समाचार का सत्यापन मुझसे करवा रही
है। सो मैंने हर्ष से भरकर कहा- 'हो बेटी यह सच है ।' 'पापा भगवान की जब चोर ने आंखें निकाली तो उसे दर्द नहीं हुआ, वह चिल्लाया नहीं, उसने चोर को भगाया नहीं, उसने ऐसा क्यों नहीं किया ?'
इस प्रश्न का उत्तर मेरे पुत्र ने मेरे कहने के पहले दे दिया- 'संध्या ! भगवान की आंखें होने पर वह कौन-सा दुख दर्द देख रहा था, इसलिए चोर ने सोचा आंखें ले जाने पर भगवान को बहाना तो मिल जाएगा यह कहने का कि उसकी आंखें हैं ही नहीं।' कहकर वह एक क्षण चुप रहा फिर उसने कहा - 'फिर संध्या जब पुजारी को भगवान ने बनाया है तो चोर को भी तो उसी ने बनाया होगा और उसकी इच्छा से सृष्टि का पत्ता नहीं हिलता तो उसकी इच्छा के बगैर भी वह उसकी आंख नहीं निकाल सकता थाहै ना पापा ?'
'पता नहीं बेटा।' मैंने गहरी निराशा से भरकर कहा तो मेरे पुत्र
ने प्रसन्न होकर कहा—'पापा यह सच्चाई कड़वी होती है। आपका कर्तव्य है कि हमें इन सच्चाइयों से पूर्व में ही परिचित करा दें, क्योंकि जब आस्था-विश्वास टूटता है तो बहुत पीड़ा होती है। खैर छोड़िए पापा ! अब कुछ और सवाल कर लूं ?"
"नहीं बेटा अगली बार देखेंगे।' मैंने थके हुए शब्दों में कहा। 'ना पापा ! अब ऐसा सवाल नहीं करेंगे जो आपकी आस्था को ठेस पहुंचाए। छोटे-छोटे सवाल हैं प्लीज पापा ।
'ठीक है पूछ लो ।' 'हवा दीखती क्यों नहीं ?'
'पता नहीं बेटा।'
'पापा महक का रंग कैसा होता है ?"
'पता नहीं बेटा ।'
'पापा ईश्वर कैसा दिखता है ?'
'पता नहीं बेटा।' 'मृत्यु के बाद क्या होता है ?'
'पता नहीं बेटा।'
मेरी बेटी ने बीच ही में टोककर पूछा- 'पापा स्वर्ग नर्क होता है
या नहीं ?"
'पता नहीं बेटी ।'
संध्या ने कहा—'आप हमारे सब प्रश्नों का उत्तर-पता नहीं, पता नहीं, कहकर क्यों देते हैं।' 'पता नहीं।' मैंने झेंपते हुए कहा ।