प्रकृति से सीखें जीवन की राहें

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किसी चौराहे पर चंद मिनट खड़े होकर वहाँ से गुजरने वाले लोगों पर गौर कीजिए ध्यान से देखिए, कितने लोगों के चेहरे पर खुशी नाच रही है। सौ जने निकल गए, तो उनमें से केवल चार-पाँच चेहरों पर आपने हँसी देखी होगी। वे लोग नौजवान श्री है। क्या कारण हैं, बाकी लोग उदासी में मुँह लटकाए खोए-खोए नजर आए? ऐसा क्यों? किसलिए बाहर जाकर देखना है ? खुद अपने को आईने में देखिए न... क्या आपके


चेहरे पर खुशी और प्रसन्नता है? या जबर्दस्ती हँसी लानी पड़ती है?

पाँच साल की उम्र में आप बगीचे में तितली के पीछे भाग रहे थे, याद आ रहा है? तितली को छूते हुए उसके रंग आपके हाथ पर झिलमिलाते हुए चिपक गए। उस समय आपको यहाँ अनुभव हो रहा था कि दुनिया में इससे बढ़कर और कोई आनंद है ही नहीं आपके अंदर से खुशी उमगउमग कर फूट रही थी, है न?

पाँच साल में आपका कद कितना था ? अब आपकी लंबाई कितनी है ? आपको

खुशी भी उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए थी न ?

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मासूमियत से भरी उस अबोध वय में आपने खुशी के सिवा और किसी भाव को नहीं जाना था। उसके बाद क्या हुआ ? आप पलकर बड़े हुए। खुशी से रहने के लिए कई चीजों को ढूंढ-ढूंढ कर इकट्ठा किया। ऊँची पढ़ाई, कंप्यूटर, अपना मकान, मोटर बाइक, गाड़ी, क्रेडिट कार्ड, टेलीविजन, डी.वी.डी, ए.सी., मोबाइल फोन वगैरह-वगैरह... अपनी-अपनी कोशिशों के मुताबिक जाने कितनी सुविधाएँ आप लोगों ने एकत्रित कर ली ? सारे जहाँ को जीतने का दम भरने वाले शहंशाहों को भी इतनी सारी सुविधाएँ मयस्सर नहीं थीं, पता है आपको ?

लेकिन क्या हुआ? खुशियाँ पाने के लिए जिंदगी में इतना सब कुछ ढूंढने के

बावजूद आपने सिर्फ खुशी को गंवा दिया. कहाँ गई आपकी खुशियाँ ?

एक बार मटका भर शराब पीकर शंकरन पिल्लै बस स्टॉप पर खड़े थे जो बस आई, खचाखच भरी हुई थी। किसी तरह मुक्का मार कर शंकरन पिल्लै बस में चढ़ गए। दसेक लोगों के पाँव रौंदते हुए और चार-पाँच को कोहनी से धकेलते हुए अंदर सरकते गए।

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किसी बुढ़िया की पास वाली सीट पर बैठा हुआ एक आदमी खड़ा हो गया। शंकरन पिल्लै लोगों को कोहनी से हटाते हुए उस सीट की ओर लपक पड़े। लोगों ने उन्हें यही सोचकर रास्ता दिया होगा, शराबी से लफड़ा काहे मोल लें ? शंकरन पिल्लै शान से आगे बढ़े और उस सीट पर धड़ाम से बैठे। इसी वेग के साथ बुढ़िया पर गिर पड़े। बुढ़िया की गोद पर रखी फलों की टोकरी लुढ़की और फल चारों और बिखर पड़े। गुस्से में आकर बुढ़िया ने पिल्लै को कोसा, 'अरे तू सीधे नरक में जाएगा।'

शंकरन पिल्लै सकपकाकर उठे और चिल्लाने लगे, "रोको भाई, गाड़ी रोकी। मुझे गांधी नगर

जाना है। मैं गलत बस में चढ़ गया।" आप में से कई लोगों को शंकरन पिल्लै की तरह होश नहीं रहता कि कहाँ जाना है और किस बस में सवार होना है। आप भी इसी तरह बसों में चढ़ते-उतरते धक्के खाते रहते हैं।

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इच्छित वस्तु न मिलने पर यदि आप मुँह लटकाये फिरें वह भी मूर्खता ही है। लेकिन वांछित वस्तु मिलने के बाद भी खुशी भोगने का गुर जाने बिना किसलिए भटक रहे हैं? प्रकृति से आपको सीखने के लिए कई सारी बातें हैं।




नारियल के पेड़ को ही लीजिए आपके बाग में ऊँचा खड़ा यह नारियल का पेड़ गुच्छे पर गुच्छे जायकेदार नारियल देता रहता है। दूसरे पेड़ों को काटने पर भी नारियल का पेड़ काटने का आपका मन नहीं करेगा। पानी सींचकर उसकी परवरिश करते हैं। क्या वह आपसे पानी की प्रतीक्षा करते हुए नारियल के गुच्छों को ढोता है ?

उसकी जो भी प्रकृति है, सौ फीसदी उसी के मुताबिक काम होता है। उसे जो पानी मिलना

होता है, कहीं न कहीं से मिल ही जाता है।

प्रकृति.... उसके अनुरूप कार्य ... फिर उसका फल... यही कुदरत की नियति है।

लेकिन आप ?

आप सचिन की तरह क्रिकेट खेलना चाहते हैं: ऐश्वर्या राय की खूबसूरती चाहते हैं: किल गेट्स की तरह धन-कुबेर बन जाने की इच्छा करते हैं; इस तरह का एक बँगला; उस तरह की कार; उनकी जैसी सुखमय जिंदगी; इनकी जैसी धाक... आप पहले से ही फल का चुनाव कर लेते हैं; फिर उस लक्ष्य को पाने के लिए काम पर उतर जाते हैं। इस बात की चिंता या परवाह नहीं करते कि वह आपकी प्रकृति के अनुरूप है या नहीं ? आप उसे अपनी प्रकृति बनाने की

कोशिश करते हैं।

इस तरह दूसरों की देखादेखी उन्हीं के साँचे में अपनी जिंदगी को ढालने का प्रयत्न करेंगे तो जीवन नरक बन जाएगा हाँ... अपनी प्रकृति को समझे बिना, उल्टी दिशा में पतवार चलाना ही सभी दिक्कतों का कारण है....

आपकी मूलभूत इच्छा में कोई दोष नहीं है!


लेकिन अपनी प्रकृति क्या है, इसे आप कैसे समझेंगे ? सवाल यही है।





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