प्रायश्चित

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अवनी को स्कूटी स्टार्ट करते देख श्यामा ने दूर से ही आवाज दी, 'अरे ओ अवनी, जरा रूकना !' अवनी ने खीझते हुए कहा, 'कहो क्या कहना है। '

श्यामा पास आकर, 'जानती हो सृष्टि किशोर के साथ कहीं भाग गई!' अवनी आश्चर्य से, 'क्या.. ?'

'हाँ रे... आज पूरे शहर में यह चर्चा जोरों पर है।' श्यामा से सृष्टि के विषय में सुनकर अवनी का चेहरा उतर गया, क्योंकि सृष्टि उसकी सबसे प्रिय सहेली थी। इस घटना ने पति-पत्नी को इतना आहत किया कि दोनों ने बिस्तर पकड़ लिया। पड़ोसियों की सेवा के बल पर दोनों की हालत में थोड़ा सुधार आया लेकिन

अपनी बेइज्जती की बात सोचकर उनको इतना सदमा लगा कि वे डिप्रेशन में चले

गये। गहरे डिप्रेशन के कारण मिस्टर राय लकवाग्रस्त हो गये। अब उनकी हालत

ऐसी हो गई कि वे नित्य-कर्म के लिए भी बिस्तर से नहीं उठ पाते। परिवार के

नाम पर ले-देकर सिर्फ पत्नी ही है, लिहाजा पति की जिम्मेदारी उन पर ही आ

गई है।

मिसेज राय को भी बेटी के जाने का बहुत दुःख है लेकिन पति का दुःख देखकर उन्होंने अपना दुःख भुला दिया और वे दिन-रात पति की सेवा में लगी रहती हैं, पर एकान्त में बेटी को याद कर आँसू बहाती हैं।

आज मिस्टर राय के घर में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है। सारा घर उदासी में डूबा हुआ है। राय जी बिस्तर पर पड़े-पड़े एक टक छत को निहार रहे हैं और आँसू से पूरा तकिया भींग गया है। पति से छुपकर मिसेज राय भी एक कोने में बैठकर रो रही है, क्योंकि आज उनकी इकलौती बेटी सृष्टि का जन्मदिन है।

कॉलबेल की आवाज सुनकर मिसेज राय आँसू पोछते हुए दरवाजा खोलने गई, दरवाजे पर डाकिये को देखकर अचम्भित रह गई। ये सोचने लगी कि 'मेरे




यहाँ चिट्ठी कहाँ से आयेगी ?' तभी डाकिये ने उन्हें एक चिट्ठी थमाई और जाने लगा। उन्होंने धीरे से उसे रोककर कहा, 'बेटे जरा पढ़कर बताओ कि किसकी चिट्ठी है ? बिना चश्मे के मुझे कुछ नहीं दिखता है।' डाकिये ने कहा, 'माँ जी! सृष्टि बेबी की।'

सृष्टि का नाम सुनकर उन्हें लगा जैसे सूखे पेड़ में जान आ गई हो ! वे दौड़कर अंदर जाकर चश्मा ले आईं और पत्र पढ़ने लगीं। जैसे-जैसे वे पत्र पढ़ती जा रही थीं उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती जा रही थी... प्यारी माँ !



बचपन से तुम मुझे अच्छे-बुरे सतसंगति और दुस्संगति की लाभ-हानि की बात समझाती थी, लेकिन मैं तुम्हारी एक नहीं सुनती थी। इस तरह अपनी मनमानी करते-करते मैं दिन-ब-दिन जिद्दी होती चली गई और... र.........पापा! वे तो कभी हम दोनों के बीच आते ही नहीं थे। मेरी पूरी जिम्मेदारी तुम पर सौंपकर वे निश्चिंत हो गये थे। तुम्हारे प्यार को अपना हथियार बना मैं हमेशा तुमसे उल्टी-सीधी माँग मँगवाती रही।

और इस सब से बेखबर पापा, मेरी शादी अच्छे घर में हो, इसके लिए दिन- रात एक कर पैसे कमाने में लगे रहे। एक दिन मैं अपनी ही क्लास के एक लड़के के साथ घर से भाग कर यौवन के रंगीन सपनों में ऐसी खोई कि यथार्थ की दुनिया से एकदम दूर चली गई।

मैंने कभी नहीं सोचा था कि इसका खामियाजा आप लोगों को भुगतना पड़ेगा।

माँ! आज जब में अपनी उन हरकतों के विषय में सोचती हूँ तो मेरे रोंगटे खड़े जो जाते हैं। मैं अपने आपको कोसने लगती हूँ, लेकिन अब पछताने के सिवा दूसरा कोई चारा भी तो नहीं है। अपनी ही गलती के कारण मैं आज ना तो घर की रही और ना घाट की ही।

माँ ! जानती हो किशोर मुझसे हमेशा मीठी-मीठी बातें कर मुझे रंगीन जीवन का ख्वाब दिखाता रहता था मैं उसकी स्वप्निल बातों में खोई रहती थी, और हमेशा उसी के साथ रहना चाहती थी। मैं उसे दुनिया का सबसे खूबसूरत एवं अक्लमंद लड़का समझती थी और स्वयं को सबसे हसीन और सौभाग्यशालिनी लड़की माँ उस समय तुम्हारी कोई भी सीख मुझे अच्छी नहीं लगती थी, मैं हमेशा सोचती थी कि बेकार घर आती हूँ बाहर ही भली थी।

माँ तुम्हें क्या बताऊँ! जिस दिन हम दोनों भागने वाले थे, तुमने मेरी पसंद का खाना बनाया था। ढेर सारे मेवे डालकर गाजर का हलवा बनाया था। हर रोज




की तरह तुमने उस दिन भी बड़े प्यार से खाना खिलाकर मुझे कॉलेज भेजा था और साथ में तुमने टिफिन में गाजर का हलवा इस हिदायत के साथ दिया था कि लीजर पीरियड में उसे जरूर खाना, खबरदार जो इसे लौटाकर लाई। मैंने भी हाँ में सर हिलाया था।

माँ जब तुम किचिन में थी तो मैंने तुम्हारे सिरहाने से आलमारी की चाबी निकाल कर आलमारी खोली और जो गहने तुमने घर खर्च से पैसे बचाकर मेरे लिए बनवाये थे उन्हें बैग में समेट लिया, कुछ नगद रुपये और दो जोड़ी कपड़े भी बैग में रखकर चाबी जगह पर रख दी और कॉलेज के लिए ऐसे निकल गयी जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार किशोर घर से कुछ दूरी पर मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। वहाँ से निकलकर हम दोनों कोलकाता जाने वाली ट्रेन पर बैठ गये ।

कोलकाता पहुँचकर हम लोगों ने एक सस्ते से होटल को अपना आशियाना बनाया। हर रोज मनपसंद खाना खाना, सिनेमा देखना और सैर-सपाटे कर सो जाना, यही हमारी दिनचर्या थी। जब तक पैसे थे तब तक सब ठीक रहा, फिर चिंता होने लगी कि पैसे खत्म हो जाने पर क्या होगा ? हम दोनों जिधर से ही निकलते लोग हमें शक की दृष्टि से देखते थे, इससे बचने के लिए हमने दक्षिणेश्वर काली मंदिर जाकर विवाह कर लिया और जीने के लिए काम की तलाश करने लगे। हम लोगों के पास कोई डिग्री तो थी नहीं, जो आसानी ने अच्छी जगह नौकरी मिलती। हम

लोग रोज सुबह काम की तलाश में निकलते और थके-हारे रात गये होटल पहुँचते

थे। धीरे-धीरे एक-एककर मेरे सारे जेवर बिक गये, होटल का किराया देना भी अब

हम लोगों को मुश्किल हो रहा था। माँ! तभी एक दिन अचानक किशोर मुझे एक अधेड़ थुलथुल मोटे आदमी के पास ले गया। पहले तो उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और आश्वस्त होकर मुझे काम पर रखने के लिए राजी हो गया। मेरे यह पूछने पर कि 'कौन काम करना होगा? और तन्ख्वाह कितनी होगी?' उसने कहा, 'काम बहुत ही आसान है, हर रोज शाम को मेरे यहाँ कुछ मेहमान आयेंगे उन्हें चाय नास्ता देकर उनका मनोरंजन करना है, यदि वे खुश होकर जायेंगे तो मैं तुम्हें मुंहमांगी तन्ख्वाह दूंगा।' यह सुनकर मैं अचम्भित रह गई। इस तरह की नौकरी का जिक्र तो मैंने कभी नहीं सुना था। लेकिन पैसे की जरूरत थी, इसलिए नहीं चाहते हुए भी मन मारकर हाँ करके चली आई। रास्ते में बाजार के पास ट्राम से उतरकर किशोर ने मेरे लिए श्रृंगार का कुछ सामान लिया और खाने-पीने का भी। रात में हम दोनों खाकर खुशी-खुशी सो गये । कल तय समय पर किशोर मुझे उस सेठ के पास छोड़कर यह कहकर चला गया




कि रात में यदि देर हो जायेगी तो यहीं रूक जाना। मैं सुबह आकर तुम्हें ले जाऊँगा। उसकी बात सुनकर मैं चकित रह गई। मेरे मन में एक साथ कई प्रश्न उठे कि मैं रात में यहाँ रूककर क्या करूंगी ? फिर किशोर मुझे लेने क्यों नहीं आयेगा ? और नौ बजे तक तो मेरा काम समाप्त हो जायेगा। लेकिन पहला दिन है, सोचकर मैं चुप रही।

शाम के छः बजे सेठ जी के यहाँ धड़ाधड़ छः-सात बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ आकर रुकी और गाड़ी से सुंदर वस्त्रों में सुसति कई रईसजादे उतरे। मैंने विमान परिचारिका की भाँति हाथ जोड़कर, चेहरे पर मुस्कान भरकर सबका अभिवादन किया और अंदर आने के लिए आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया। सभी सधे हुये कदमों से चलकर सोफे में धँस गये। मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा, 'ठंडा लेंगे या गरम ?' सभी ने एक स्वर से कहा, 'अपने कोमल हाथों से जो पिता दोगी, हम पी लेंगे।' मैं अंदर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि झकाझक सफेद वस्त्रधारी एक आदमी हाथ में ट्रे जिसमें कई खाली ग्लास, कुछ भूने हुए काजू और स्नैक्स थे, सेंटर टेबुल पर रखकर चला गया। सामने टेबुल पर कई किस्म की विलायती शराब की बोतलें पहले से रखी थीं। एक ने कहा, 'सुंदरी जरा अपने हाथ से जाम भरकर तो पिलाओ! मरहवा नशा दुगना हो जायेगा।' माँ इस तरह तुम्हारी बेटी कहाँ से कहाँ पहुँच गई। मेरा मन अंदर से रो रहा था, लेकिन हाथ यंत्रवत् काम में लगे थे।

शाम गहराती गई, जाम पर जाम चलते रहे। पाँच-छः पेग पी लेने के बाद सभी बहकने लगे, मैं शर्म और डर के मारे एक कोने में खड़ी हो गई और मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगी। मैंने प्रार्थना की कि 'हे भगवान अब मेरी लाज आप ही के हाथ में है। मुझे किसी तरह इस नरक से निकाल लीजिये।' मैं यह सोच ही रही थी कि एक ने झपट कर मुझे दबोचना चाहा, मैंने अपनी सारी ताकत लगाकर उसे धकेल दिया, अधिक पी लेने के कारण वह लड़खड़ाकर जमीन पर गिर गया। उसके गिरते ही दूसरे ने मुझे आगे बढ़कर पकड़ लिया, मैं उसकी गिरफ्त से निकलने के लिए छटपटाने लगी। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे मैं वहाँ से भाग निकलूं मुझे छटपटाते देखकर सेठ जी ने कहा, 'क्यों बेकार के नखरे दिखा रही है और सती सावित्री बनने का ढोंग कर रही है। तुम्हारे पति ने तुम्हें एक लाख रुपये में मेरे हाथ बेच दिया है। अब मैं तुमसे जो भी करवाऊँ, यह मेरी मर्जी

यह सुनकर मेरे पाँव के नीचे से जमीन खिसकने लगी, लेकिन हिम्मत करके मैं उसे गिराते हुए वहाँ से भागने में सफल हो गई। वहाँ उपस्थित लोगों में से किसी में भी इतनी ताकत नहीं बची थी कि मुझे पकड़ सके। गेट का चौकीदार हर





रोज किसी गरीब असहाय लड़की की बलि चढ़ते देखते-देखते उब चुका था, लिहाजा उन लोगों ने भी मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा, 'भाग जा बेटी। इन भेड़ियों की नजर से दूर चली जा! नहीं तो ये गिद्ध की तरह तुम्हें नोच डालेंगे।' उनके उत्साहवर्द्धन से मैंने आगे की ओर जो दौड़ना शुरू किया तो दौड़ती ही रही, पीछे मुड़कर नहीं देखा ।

माँ वहाँ से भी मैं तुम्हारे ही आशीर्वाद के कारण बचकर निकल सकी। दौड़ते-दौड़ते मैं शुभांगी माँ के पास आकर गिरी, उन्होंने मुझे उठाकर गले लगा लिया और अपने घर ले आई। मेरा हाथ-मुँह धुलवाकर मुझे गर्म-गर्म दूध पीने को दिया और पंखा चलाकर मुझे आराम करने के लिए कह स्वयं रसोई में चली गई।

थोड़ी देर के बाद वो खाना लाई और मुझे उठाकर बड़े प्यार से खिलाया। माँ सच कहती हूँ उस समय लगा कि आप ही मेरे सामने बैठकर मुझे खिला रही हो । कुछ दिन के बाद उन्होंने मुझसे मेरी आप बीती सुनी और मुझे भी अपनी सुनाई। माँ शुभांगी माँ उच्च विद्यालय में शिक्षिका है, वह अकेली ही रहती है।

माँ उन्होंने ही एक दिन मुझे आपको पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। मैं

डर रही थी कि किस मुँह से मैं आपको पत्र लिखूं, लेकिन उनके समझाने का मुझ

पर इतना असर पड़ा कि मैं आपको पत्र लिखने के लिए बैठ गई ।

माँ! मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है। मैं जानती हूँ कि मेरा अपराध क्षमा के लायक नहीं है, फिर भी अपने हृदय का टुकड़ा समझकर एक बार मुझे माफ कर दीजिए। हाँ माँ एक बात और मैं अब भूलकर भी किशोर को याद नहीं करती हैं, शायद यही मेरे पापों का प्रायश्चित है।

आशा है पापा ठीक होंगे, मैं किस मुँह से उनको अपना प्रणाम निवेदित करूँ। मैंने तो भरे समाज में उनकी इज्जत नीलाम कर दी है।


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